Wednesday, November 21, 2012

राजू टाइटस इंटरव्यू, भाग 1




मेरी जानकारी में भारत में (शायद विश्व में भी) किसी नें मासानोबू फुकुओका की कुदरती खेती तो इनती लगन और इतने समय नहीं किया जितना राजू टाइटस जी  नें। राजू-जी और उनकी पत्नी शालिनी-जी नें कुदरती खेती का अपना सफ़र 27 साल पहले उनके 13 एकड़ के खेत में शुरू किया। समय के साथ उन्होंने कुदरत के बताये हुए तरीकों तो अपने खेतों में ही नहीं, बल्कि अपने जीवन के अन्य पहलुओं में भी उतारा। लेकिन इसकी  कहानी हम सुनेंगे उन्हीं की जबानी।

कुछ समय पहले हम दो दिन राजू-जी के फार्म में रहे। कुदरती खेती की बातचीत की, बीज की गोलियां बनाईं, खेती के लिए एक छोटी जमीन की तैय्यारी की, और इसके अलावा हमने खायीं उनके खेत के कुदरती गेहूं से बनी स्वादिष्ट रोटियां। इसके साथ ही हमें मिला स्वाद राजू-जी के उत्साह, और उदार भावना का जो प्रदर्शित हुआ दो पास के गावों की सैर में -- यहाँ राजू-जी नें अपने कुदरती खेती के अनुभवों तो दूसरे किसानों के सामने रखा।

लौटने पर हमारा मिलना ऐसे लोगों से हुआ जो भी राजू-जी और कुदरती खेती के बारे में जानना चाहते थे। अपने हमारे भी और सवाल थे। बस इसी से इंटरव्यू करने का विचार आया और राजू-जी से पूछने पर हमीं मिली। यह है इंटरव्यू का पहला भाग। इसमे राजू-जी बात करते है अपने फार्म के बारे में, और साथ ही बताते है कुदरती खेती में क्या किया जाता है, या फिर उस से भी ज्यादा ज़रूरी, क्या नहीं किया जाता है। नहीं किया जाना ही कुदरती खेती के फ़लसफ़े का आधार है।
(नोट: इस इंटरव्यू के अंग्रेज़ी अनुवाद की पोस्ट में  कुछ फोटो भी है)



Q: 27 साल पहले, कुदरती खेती करने से पहले, आप किस तरह की खेती में लगे थे? आप क्या क्या उगा रहे थे?

RT
: कुदरती खेती करने से पूर्व हम गहरी जुताई, रासायनिक उर्वरक, कीट और खरपतवार नाशक जहरों, हाई ब्रिड बीज़ों, भारी सिंचाई, समतलीकरण आदि पर आधारित खेती, "हरित क्रांति" खेती, कर रहे थे। इस में हम सोयबीन और गेंहू उगाते थे। 15 साल हमने ये खेती की। इस से पूर्व हम देशी खेती करते थे। हम और अधिक के चक्कर में फंस गए थे।

Q: हमारी बातचीत में आपने बताया था की उस समय आपने खेती न करने का मन बना लिया था। क्या कारण था इस सोच के पीछे? आप किस तरह की मुसीबतों का सामना कर रहे थे?

RT: हरित क्रांति के दोरान हमने समतलीकरन करवाया, कांस घास को निकालने का काम करवाया, सिंचाई के लिए कुआ खुदवाया ,बिजली की लाइन लगवाई, मोटर लगवाई, किराये से ट्रेक्टर आदि मशीने लेकर हम खेती करते थे। जैसी भी वैज्ञानिक सलाह देते थे हम वैसा ही करते थे। पहले साल तो हमें अच्छे परिणाम मिले; उसके बाद हमें कभी अच्छे परिणाम नहीं मिले। हम 15 साल तक जोर अजमाते रहे इस से हमारे खेत मरुस्थल में तब्दील हो गए और हम आर्थिक रूप से कंगाल हो गये। हमारे खेत पूरी तरह कांस घास से भर गए थे। ये घांस पनपते रेगिस्थान की निसानी है। इस में खेती करने से खर्च दुगना हो जाता है फसल कम होती है।

आर्थिक तंगी के कारण हमने खेती छोड़ने का मन बना लिया था। मैं उन दिनों नौकरी कर रहा था इस लिए बच गया अन्यथा मेरा भी वही हर्ष होता जो अनेक किसानो का हो रहा है। हमारे माता पिता ने शहर में चार प्लाट खरीदे थे वे भी इस खेती को भेंट चढ़ गए।

Q: आपको कुदरती खेती के बारे में कैसे पता लगा ? और इस जानकारी के बाद आने अपने खेत में किस प्रकार के परिवर्तन करने शुरू किये ?

RT: हमने जब खेती को छोड़ देने का मन बना लिया तो मेरे माता पिता बहुत दुखी हो गए। उसी समय उनकी मुलाकात गाँधीवादी क्वेकर मार्जरी साय्क्स और परतापजी अगरवाल से हुई। जिन्होंने One Straw Revolution (एक तिनके से क्रांति) का पहला भारतीय संस्करण छापा था। उन्होंने ये किताब मेरी माताजी को थमा दी। उनके आग्रह पर जब मैने ये किताब पढ़ी तो में बदल गया।

मैने कुदरती खेती को अपना लिया। इस के बाद मेरे माता पिता और मार्जरी बहन और परतापजी को की चिन्ता और अधिक इसलिए बढ़ गयी की कहीं नुक्सान हुआ तो बदनामी हो जाएगी। ये काम सब अनजाने में हो गया। इस के पीछे मेरी फेक्ट्री की नोकरी का बहुत सहयोग रहा -- एक तो उसे मैं छोड़ना चाहता था और उस से मिलने वाले पैसे से हम आमदनी के प्रति निश्चिन्त थे।

शुरू में हमें बस ये मालूम था की जुताई, खाद, रसायन आदि की कोई जरुरत नहीं है। किन्तु कैसे करना हमें नहीं मालूम था। एक दिन मैने कुछ सोयाबीन के दाने बस जमीन पर बिखेर कर उन्हें पुआल से ढँक दिया; बारिश हो रही थी, कुछ दिनों बाद मेने देखा की पुआल के बाहर सोयाबीन के नन्हे-नन्हे पौधे झांक रहे हैं और कोई भी खरपतवार नहीं है। बस मेरी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। हम इसी तरीके से खेती करने लगे। पुआल की जगह हम कांस घांस को काटकर उस को बीजों पर ढांक देते थे। ऐसा करने से एक ओरजहाँ हमें अच्छी फसल मिलने लगी वही सबसे कठिन खरपतवार गायब हो गयी। हमारे इस प्रयोग से फुकुओकाजी बहुत खुश हुए। उन्होंने हमें दुनियाभर भर में कुदरती खेती के हो रहे प्रयोगों में न . वन दे दिया। वे 1988 जनवरी में हमारे यहाँ पधारे थे।

Q: शालिनी-जी इस खेती में आपकी बड़ी भागीदार बनी। उन्होंने बताया कि कैसे वे अपने हाथों से कई एकड़ में बीज फैंकती थी और बीज एक-से गिरते थे! उनके योगदान बारे में कुछ बताइये

RJ: पत्नी के बिना हम कुछ नहीं कर सकते थे। खेती के काम में उनकी असली भागीदारी रही है। कुदरती खेती एक विषय है जिस में एक समय ऐसा आता है जब आप अकेले पड़ जाते हैं, उस समय आपकी पत्नी ही एक मात्र आपका सहारा होती हैं। कुदरती खेती में बहुत काम होते हैं; खेतों की तयारी  करवाना, बीज फेंकना, पानी देना, फसल की कटाई, गहाई आदि सब में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। किसी भी नए प्रयोग को करने में हम दोनों मिलकर सलाह कर के ही काम करते हैं। कुदरती खेती से हमारा परिवार अनेक परेशानियों के बावजूद एक मत खुश हाल है। ये ऐसी खेती है जिसमे केवल खान, पान, भोजन ही नहीं है इस में पारिवारिक प्रेम और संतोष भी हमें मिलता है।

Q: आज की तारीख में बहुत सी ज़मीनें बिलकुल बंजर पड़ी हैं। इन पर एक पौधा नहीं उगता। इस तरह की ज़मीनों पर NF की शुरुआत करने में बड़ी कठिनाइयाँ आती हैं, और अक्सर लोग हार मानकर जुताई में लग जाते हैं। आपका इस बारे में क्या अनुभव है?

RT: असल में हमारी जमीन खुद हमारी गलत खेती करने के कारण बंजर हो गयी थी। फुकुओका जी ने जब हमें कांस घास में खेती करते देखा, वे उन दिनों अमेरिका से लौटे थे। कह रहे थे ये घास अमेरिका के तीन चौथाई इलाके में गलत खेती करने के कारण फैल गयी है| वहां उन्होंने खेती करना बंद कर दिया है क्योंकी उन्हें नहीं मालूम है की इस घास में खेती कैसे करें। आप इस घास में कुदरती खेती कर रहे हैं इस लिए हम आपको न .वन कह रहे है।

हमारे छेत्र में आज भी ऋषि पंचमी के पर्व में कांस घास की पूजा होती है और कुदरती अनाजो को फलहार के रूप में सेवन किया जाता है। किसानो को इस घास के आ जाने के बाद खेतों में हल चलाने को मना किया जाता है। इस लिए प्राचीन खेती किसानी में किसान खेत में इस घास के आ जाने के बाद जुताई नहीं करते थे, इस कारण घास अपने आप चली जाती थी और खेत पुन: उर्वरक और पानीदार हो जाते थे।

बिना जुताई की कुदरती खेती बंजर खेतों को ठीक करने की विधि है। ऐसी कोई जमीन नहीं रहती जिस पर कुछ नहीं उगता कुदरत पानी में, रेत में, पत्थरों पर भी कुछ न कुछ उगाती रहती है हमें केवल कुदरत को सहयोग करने की जरुरत है।

Q: तो एकदम बर्बाद ज़मीन पर  हम "केवल कुदरत को सहयोग" कैसे करें?

RT: जब हमने कुदरती खेती की शुरुआत की उस समय हमें ये नहीं मालूम था की कैसे करें। बस हमें ये पता चल गया था की क्या ना करें, जैसे जुताई, कम्पोस्ट बनाना, रसायनों का इस्तमाल नहीं करना, पशुओं को नहीं चराना आदि। इस लिए सब से पहले हमने सब पशु हटाये, फिर फेंसिंग पर ही ध्यान दिया, किसी भी बाहरी और अंदरूनी नुक्सान को हमने पूरी तरह रोक दिया। इस से मात्र एक बरसात में हमारे खेत हरियाली से भर गए। हमारी धरती मां जो बीमार होकर बेहोश हो गयी थीं, ऐसा लगा जैसे उन्होंने ऑंखें खोल दीं। बस इसे ही देखने लोग दूर-दूर से आने लगे। हरी-हरी घास, उसके साथ अनेक पेड़-पौधे, जीव-जंतु, कीड़े-मकोड़े, तितलियाँ, मधु-मक्खियाँ वहां आने लगीं। हम बस इन्हें देख खुश होते और लागत बंद हो जाने से हमारा घाटा भी रुक गया। धीरे-धीरे देशी बबूल, सुबबूल, आदि अनेक पेड़ वहां पनप गए। बस हम भी कुदरती तरीके से बीज फेंकने लगे।

असल में कुदरत को किसी की सेवा की जरुरत नहीं है; उसकी असली सेवा उसे बचाने के लिए करनी पड़ती है। मानवीय और पालतू पशु का नुक्सान सबसे अधिक है। उसे रोक भर देने से कुदरत की सेवा हो जाती है।
बर्बाद से बर्बाद जमीन को ठीक करने के लिए भी यही एक मात्र तरीका है। बर्बादी के कारणों से जमीन को बचा भर लेने से जमीन सुधर जाती है। इस में किसी भी मानवीय बुद्धी से काम करने की जरुरत नहीं है। जमीन पर रहने वाली जैव विविधताएँ अपने आप काम करने लगती हैं।


1 comment:

  1. Hi,
    We are waiting for second article.

    Regards,
    Hetal

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